Sunday, 8 January 2012

जंगल

जंगल   खूबसूरत जगह होती है ,
बेपरवाह उगे और अलमस्त पेड़ होते हैं वहां .
 
हरे भरे पेड़ों से अटे जंगल,
बेलडियों  से सजे जंगल  
जीवन के खूबसूरत होने का संकेत देते हैं .
 
सुबह की सूरज की किरणों से
चमकती हैं हरी पत्तियाँ
जो हमारी आशाओं और सुनहले सपनों को
खूबसूरत बनाने का करती हैं वादा .
 
उम्मीदों की लताएं
पा जाती हैं पूरी जगह 
पसरने की ,
पुष्पित और पल्लवित 
होने  की .
 
जब हम  नदियों ,समन्दरों के पार
और चाँद , सितारों से आगे
जाने की करते हैं बात ,
तो एक जंगल आ जाता हैं आँखों में .
 
जंगल , जहाँ नहीं होती-
करुणा ,व्यथा ,आक्रोश ,
जहां होता है जीवन का संचार
नितन्तर ,
जीवन को आगे ले जाने का .

जो कहता हूँ

जो कहता हूँ
होती है दिल के किसी कोने से उठी हुई आवाज ,
एक आवाज
जो कुनमुनाती रहती है  
कि कभी निकालो मुझे बाहर
अपनी स्वर -ग्रंथियों से .
 
लगाती है  वो बार - बार
एक करुण आर्त टेर ,
कि निकलो अपनी ग्रंथियों से बाहर ,
अपनी अँधेरी कोठरी से बाहर ,
और निकालो मुझे
पुरजोर गंभीर स्वर में .
 
चाहो तो गाओ
चाहो तो कह दो
सीधे -सपाट शब्दों में बेलाग .
 
चाहे कर दो एक मुनादी
कि यह आवाज ऐसी है
जो उठती रही है
तुम्हारे ही जैसे
कईयों के दिल से .
 
जो कहता हूँ
वह मेरी नहीं होती आवाज़ ,
जो  कहता हूँ
वह मेरे जैसों की
आवाज़ होती है .
 
मेरे अन्दर एक साथ होते हैं  कई आदमी
जो चीखते चिल्लाते हैं
और कहते हैं निकालो एक गगनभेदी स्वर
जो शोर न हो
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ न हो
जो जब निकले तो कांप जायें वे  
जिन्होंने आवाज़ निकालने  पर
लगायी हो पाबन्दी .
 
हाँ ,पर तभी निकालो आवाज़
जब उनके  निकालने  के मायने हों
और तभी जब सब को लगे
कि आवाज़ निकालनी जरूरी है .
 

पिछली रोटियाँ

मेरी माँ ने कभी नहीं खिलायीं पिछली रोटियाँ ,
गरम तवे से निकलती फुलके को 
वह डालती जाती थी मेरी थाल में  ,
और कटोरे में रखे गरम दूध के साथ
मैं गटक जाता था उन रोटियों को .
 
चाहे नून - तेल के साथ दिया हो ,
चाहे आचार के मसालों के साथ ,
चाहे आटे की चिड़िया बना कर ,
उसने हमेशा ही दीं अगली रोटियाँ .
 
रोटी अगर पिछली ही बची हो
तो उसका एक हिस्सा तोड़ कर
उसे माँ ने बना दिया था अगली रोटी.
 
उसने हमेशा ही खिलायीं  अगली रोटियाँ
इस उम्मीद में
कि उसका बेटा उन रोटियों को खा कर
अगड़ों की जमात में शामिल हो जायेगा
कभी न कभी .
 
अगड़ों की जमात
जो अगलों की जमात होती है ,
जिनकी एक अलग पहचान होती है ,
जिनकी मान मर्यादा अलग होती है ,
जो  एकदम से ही पहचाने जा सकते हैं
पिछड़ों से अलग .
 
माँ की बनायी उन  रोटियों को खा कर ,
मैं बड़ा हुआ था ,
उन रोटियों को खा कर
मैंने किये थे दंड - बैठक ,
और मेरी नसें भींग आयी थी .
 
उन रोटियों के बल पर
बने शरीर -सौष्ठव से ,
मैंने दुनिया जीत लेना चाहा था ,
क्योंकि उन गरम नरम फुलकी अगली  रोटियों ने
मेरे अन्दर पैदा किया था
एक अजेय , अटूट ,फौलादी हौसला .
 
मैं आज भी उन खायी हुई
अगली रोटियों की बदौलत
अग्रगण्य होना चाहता हूँ ,
और ख़त्म कर देना चाहता हूँ
पिछली रोटियों के अस्तित्व को ही ,
कि न रहें पिछली रोटियाँ
इन दुनिया में .
 
पिछली  रोटियाँ
जिसने इस दुनिया का नुकसान ही ज्यादा किया है .