Sunday, 8 January 2012

जो कहता हूँ

जो कहता हूँ
होती है दिल के किसी कोने से उठी हुई आवाज ,
एक आवाज
जो कुनमुनाती रहती है  
कि कभी निकालो मुझे बाहर
अपनी स्वर -ग्रंथियों से .
 
लगाती है  वो बार - बार
एक करुण आर्त टेर ,
कि निकलो अपनी ग्रंथियों से बाहर ,
अपनी अँधेरी कोठरी से बाहर ,
और निकालो मुझे
पुरजोर गंभीर स्वर में .
 
चाहो तो गाओ
चाहो तो कह दो
सीधे -सपाट शब्दों में बेलाग .
 
चाहे कर दो एक मुनादी
कि यह आवाज ऐसी है
जो उठती रही है
तुम्हारे ही जैसे
कईयों के दिल से .
 
जो कहता हूँ
वह मेरी नहीं होती आवाज़ ,
जो  कहता हूँ
वह मेरे जैसों की
आवाज़ होती है .
 
मेरे अन्दर एक साथ होते हैं  कई आदमी
जो चीखते चिल्लाते हैं
और कहते हैं निकालो एक गगनभेदी स्वर
जो शोर न हो
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ न हो
जो जब निकले तो कांप जायें वे  
जिन्होंने आवाज़ निकालने  पर
लगायी हो पाबन्दी .
 
हाँ ,पर तभी निकालो आवाज़
जब उनके  निकालने  के मायने हों
और तभी जब सब को लगे
कि आवाज़ निकालनी जरूरी है .
 

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