मेरी माँ ने कभी नहीं खिलायीं पिछली रोटियाँ ,
गरम तवे से निकलती फुलके को
वह डालती जाती थी मेरी थाल में ,
और कटोरे में रखे गरम दूध के साथ
मैं गटक जाता था उन रोटियों को .
चाहे नून - तेल के साथ दिया हो ,
चाहे आचार के मसालों के साथ ,
चाहे आटे की चिड़िया बना कर ,
उसने हमेशा ही दीं अगली रोटियाँ .
रोटी अगर पिछली ही बची हो
तो उसका एक हिस्सा तोड़ कर
उसे माँ ने बना दिया था अगली रोटी.
उसने हमेशा ही खिलायीं अगली रोटियाँ
इस उम्मीद में
कि उसका बेटा उन रोटियों को खा कर
अगड़ों की जमात में शामिल हो जायेगा
कभी न कभी .
अगड़ों की जमात
जो अगलों की जमात होती है ,
जिनकी एक अलग पहचान होती है ,
जिनकी मान मर्यादा अलग होती है ,
जो एकदम से ही पहचाने जा सकते हैं
पिछड़ों से अलग .
माँ की बनायी उन रोटियों को खा कर ,
मैं बड़ा हुआ था ,
उन रोटियों को खा कर
मैंने किये थे दंड - बैठक ,
और मेरी नसें भींग आयी थी .
उन रोटियों के बल पर
बने शरीर -सौष्ठव से ,
मैंने दुनिया जीत लेना चाहा था ,
क्योंकि उन गरम नरम फुलकी अगली रोटियों ने
मेरे अन्दर पैदा किया था
एक अजेय , अटूट ,फौलादी हौसला .
मैं आज भी उन खायी हुई
अगली रोटियों की बदौलत
अग्रगण्य होना चाहता हूँ ,
और ख़त्म कर देना चाहता हूँ
पिछली रोटियों के अस्तित्व को ही ,
कि न रहें पिछली रोटियाँ
इन दुनिया में .
पिछली रोटियाँ
जिसने इस दुनिया का नुकसान ही ज्यादा किया है .