Sunday, 3 April 2016

विकास-यात्रा

विकास-यात्रा
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बस के हरे काँच से
मुझे सूखे पत्ते हरे नजर आये
ठूँठ आर्द्र  नरम

वातानुकूलन की शीतल हवा
तपती धरती पर नंगे पाँवों के नीचे से आती लगी .

Saturday, 4 April 2015

सजा

सजा
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न कहिये कुछ
न खींचीये आड़ी तिरछी रेखायें
न बनाईये तस्वीर
न गाईये गीत
न बजाईये संगीत
न नाचीये

कहने में
खींचने में
बनाने में
गाने में
बजाने में
नाचने में
आप कर सकते हैं
किसी सीमा को पार
जिसकी मनाही है

हदों को तोड़ने की सख्त मुनादी है
बोली की सजा गोली है.

Sunday, 8 January 2012

जंगल

जंगल   खूबसूरत जगह होती है ,
बेपरवाह उगे और अलमस्त पेड़ होते हैं वहां .
 
हरे भरे पेड़ों से अटे जंगल,
बेलडियों  से सजे जंगल  
जीवन के खूबसूरत होने का संकेत देते हैं .
 
सुबह की सूरज की किरणों से
चमकती हैं हरी पत्तियाँ
जो हमारी आशाओं और सुनहले सपनों को
खूबसूरत बनाने का करती हैं वादा .
 
उम्मीदों की लताएं
पा जाती हैं पूरी जगह 
पसरने की ,
पुष्पित और पल्लवित 
होने  की .
 
जब हम  नदियों ,समन्दरों के पार
और चाँद , सितारों से आगे
जाने की करते हैं बात ,
तो एक जंगल आ जाता हैं आँखों में .
 
जंगल , जहाँ नहीं होती-
करुणा ,व्यथा ,आक्रोश ,
जहां होता है जीवन का संचार
नितन्तर ,
जीवन को आगे ले जाने का .

जो कहता हूँ

जो कहता हूँ
होती है दिल के किसी कोने से उठी हुई आवाज ,
एक आवाज
जो कुनमुनाती रहती है  
कि कभी निकालो मुझे बाहर
अपनी स्वर -ग्रंथियों से .
 
लगाती है  वो बार - बार
एक करुण आर्त टेर ,
कि निकलो अपनी ग्रंथियों से बाहर ,
अपनी अँधेरी कोठरी से बाहर ,
और निकालो मुझे
पुरजोर गंभीर स्वर में .
 
चाहो तो गाओ
चाहो तो कह दो
सीधे -सपाट शब्दों में बेलाग .
 
चाहे कर दो एक मुनादी
कि यह आवाज ऐसी है
जो उठती रही है
तुम्हारे ही जैसे
कईयों के दिल से .
 
जो कहता हूँ
वह मेरी नहीं होती आवाज़ ,
जो  कहता हूँ
वह मेरे जैसों की
आवाज़ होती है .
 
मेरे अन्दर एक साथ होते हैं  कई आदमी
जो चीखते चिल्लाते हैं
और कहते हैं निकालो एक गगनभेदी स्वर
जो शोर न हो
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ न हो
जो जब निकले तो कांप जायें वे  
जिन्होंने आवाज़ निकालने  पर
लगायी हो पाबन्दी .
 
हाँ ,पर तभी निकालो आवाज़
जब उनके  निकालने  के मायने हों
और तभी जब सब को लगे
कि आवाज़ निकालनी जरूरी है .
 

पिछली रोटियाँ

मेरी माँ ने कभी नहीं खिलायीं पिछली रोटियाँ ,
गरम तवे से निकलती फुलके को 
वह डालती जाती थी मेरी थाल में  ,
और कटोरे में रखे गरम दूध के साथ
मैं गटक जाता था उन रोटियों को .
 
चाहे नून - तेल के साथ दिया हो ,
चाहे आचार के मसालों के साथ ,
चाहे आटे की चिड़िया बना कर ,
उसने हमेशा ही दीं अगली रोटियाँ .
 
रोटी अगर पिछली ही बची हो
तो उसका एक हिस्सा तोड़ कर
उसे माँ ने बना दिया था अगली रोटी.
 
उसने हमेशा ही खिलायीं  अगली रोटियाँ
इस उम्मीद में
कि उसका बेटा उन रोटियों को खा कर
अगड़ों की जमात में शामिल हो जायेगा
कभी न कभी .
 
अगड़ों की जमात
जो अगलों की जमात होती है ,
जिनकी एक अलग पहचान होती है ,
जिनकी मान मर्यादा अलग होती है ,
जो  एकदम से ही पहचाने जा सकते हैं
पिछड़ों से अलग .
 
माँ की बनायी उन  रोटियों को खा कर ,
मैं बड़ा हुआ था ,
उन रोटियों को खा कर
मैंने किये थे दंड - बैठक ,
और मेरी नसें भींग आयी थी .
 
उन रोटियों के बल पर
बने शरीर -सौष्ठव से ,
मैंने दुनिया जीत लेना चाहा था ,
क्योंकि उन गरम नरम फुलकी अगली  रोटियों ने
मेरे अन्दर पैदा किया था
एक अजेय , अटूट ,फौलादी हौसला .
 
मैं आज भी उन खायी हुई
अगली रोटियों की बदौलत
अग्रगण्य होना चाहता हूँ ,
और ख़त्म कर देना चाहता हूँ
पिछली रोटियों के अस्तित्व को ही ,
कि न रहें पिछली रोटियाँ
इन दुनिया में .
 
पिछली  रोटियाँ
जिसने इस दुनिया का नुकसान ही ज्यादा किया है . 
 

Wednesday, 7 December 2011

तराजू के दोनों पलड़ों के बीच से

1
मैंने सबसे पहले तराजू के दोनों पलड़ों के बीच से 
आपकी आँखों को देखा था 
जब आपने गल्ले की दुकान पर बैठे सेठ को 
बढाया था हाथ की परची ,
जिसमें था आपके महीने भर का 
राशन का बजट .
 
आपकी फेहरिस्त में था -
चावल ,आटा, किस्म किस्म का  दाल
तेल , मसाले ,हल्दी , नमक , तेजपत्ते .
 
तराजू के दोनों पलड़ों के बीच से ही
मैं देखा करता था आपकी जरूरतें ,
और तौला करता था जिंसों को
जो आपके जिस्म की सलामती के लिये
बेहद जरूरी थीं .
 
जिंसों को तौल कर
मैं बड़े ही सलीके से
बाँधा करता था उन्हें
कागज के ठोंगों में ,
और फिर सुतली से बांध
उन्हें भर दिया करता था
आपके थैले में .
 
और ऊपर से दोनों मुट्ठी  भर तेजपत्ते
मुफ्त में आपके थैले में रख देता .
 
2
 
तराजू के दोनों पलड़ों के बीच ही
मैंने पाया कि उनके पलड़े भी
हो गए बेमानी ,
जब मेरे हाथ उन पलड़ों पर
सामान तौलने की बजाय
चावल , दाल , आटे और तेल मसालों के
बंद पैकेट उठाने में ज्यादा व्यस्त रहने लगे .
 
और  तेजपत्ते भी अब बिकने लगे थे .
 
3
 
सालों तक गल्ले की दुकान में नौकरी के बाद
फिर मैं हूँ नौकरी की तलाश में .
 
मैं झांक भी आया हूँ ,
उन  शीशों के भीतर ,
जहाँ आपके  हाथ  खुद उठा रहे थे
जिंसों के पैकेट को ,
और जल्दबाजी में  रख रहे थे उन्हें
प्लास्टिक की टोकरी में .
 
दुकान से बाहर आने पर
सुनहली खाकी ड्रेस में दरवान
आपको  सलाम बजाता था ,
और आप  चंद सिक्के रख रहे थे
उसकी हथेलियों पर .
 
मैं समझ गया था
मेरी जगह तराजू के दोनों पलड़ों की बीच
अब कहीं नहीं थी ,
अब वह दुकान के बाहर आ गयी थी .
 

शासक-5

शासक ने बरसाये थे कोड़े
मेरे परदादा के पूर्वजों की पीठ पर  ,
सदियों पहले .
 
मेरे दादा ने देखा था
जख्म के निशान
मेरे परदादा की पीठ पर ,
उनकी फटी कमीज के नीचे .
 
उदविकास के दौरान
परदादा के पूर्वजों की पूंछ
हालाँकि कट गयी थी
और हट गयी थी ,
पर जख्म के निशान हरे थे .
 
पीढी दर पीढी
वह निशान मुझ तक
आ पहुंचा है ,
और मैं सोच में
पड़ जाता हूँ ,
कहीं मेरी संतति भी
कहीं झांक न ले ,
मेरी फटी कमीज के नीचे
कोड़ों के वह निशान .