Wednesday, 7 December 2011

देह लिये भागते लोग

मैं देखता हूँ रोज 
देह लिये भाग रहे हैं लोग,
बेमन .
 
कोई साथ नहीं खुद के
अपनी अपनी जिस्म के साथ लोग
चढ़ रहे बसों में ,ट्रामों में
रेलगाड़ियों में , कारों में
रिक्शों में .
 
यहाँ तक कि खुद पैदल चलता आदमी भी
संग नहीं खुद के .
 
कोई राह में नहीं करता किसी से बात
कोई किसी से नहीं करता हंसी- ठठ्ठा
हर शख्स पेशानियों की लकीरों को गहराता हुआ
अपनी सोच और चिंताओं के साथ
ढो रहा है अपना वज़न .
 
भागते हुए अनिद्र आदमी ने   बाँधी है 
अपनी देह के साथ 
अपने सपनों  की एक भारी पोटली 
जिसमें है बहुत कुछ अकथ्य ,अनिर्वचनीय .
 
सुनहले सपनों को आसमान से जमीन पर
उतारने की कोशिश में
अपनी देह लिये
भाग रहे हैं लोग .
 
देह लिये भागते  लोगों की सुनहली गठरी में
उनके  बच्चों के भविष्य के सुनहले सपने हैं ,
सपनीले  आशियाने के मजबूत इरादे हैं
माता पिता की खुशहाली है .
 
और उन चिंताओं
उन सपनों के लिये
बंजर, उबड़ -खाबड़, कंटीले रास्तों पर
दौड़ पाने की  चुनौती है ,
 
देह की खुशहाली के लिये
देह को तपाने की मजबूरी है .
 
तभी तो
शाम की रोटी के लिये सुबह से भागते लोग
भागते ही रहते हैं एक अंतहीन रास्ते पर ,
अपनी देह लिये अपने ही साथ .
 
 

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