Wednesday, 7 December 2011

देह लिये भागते लोग -२

देह लिये भागते लोग भागते ही रहते हैं
अंतहीन रास्ते पर अंधाधुंध
घोड़े की तरह सरपट होती है
उनकी रफ़्तार .
 
उनकी फूलती सांसें
उनकी दक्षता का गवाह नहीं होतीं
न ही सांसों के फूलने से
उन्हें उनका मकाम हासिल होता है .
 
वे तो कोशिश भर करते हैं
पहाड़ को तोड़ चट्टान बनाने की
उनके सपनों में होता है
चट्टान को पीस कर मिटटी बनाना .
 
उर्वर मिटटी में बीज डाल कर
पौधे उगाने का सपना .
और इसीलिए वे दौड़ते हैं
अनवरत ,अनथक .
 
यह जानते हुए भी कि
धान उगाते  आदमी को नहीं होता  
पेट भर चावल नसीब ,
फलों को जूस के लिये
पेरते हुए आदमी को भी 
रोटी का कौर बमुश्किल मिलता है .
 
बनिए की दूकान पर गल्ला तौलता आदमी भी
कभी -कभी रह  जाता है भूखा 
और कपड़ों की थान दिखाता 
आदमी भी रह जाता है अध-नंगा  .
 
देह लिये भागते आदमी
के ह्रदय की शिराओं से चूता है रक्त
और सांसों की धौंकनी के बीच 
चलती हुयी बर्फानी हवा 
उसके मंसूबों को ठंडी करती हुयी 
रक्त के बर्फ जमा डालती है .
 
अपने मंसूबों को जमने से बचाने की खातिर 
वह दौड़ता रहता है अंतहीन रास्ते पर .
 
देह लिये भागते  लोगों   का 
कोई नाम नहीं होता 
वे  अनाम पैदा होते  हैं
और बे-नाम ही मर -खप जाते हैं ,
तभी तो -
इतिहास में उनका  नाम नहीं होता . 
 

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