Wednesday, 7 December 2011

कविता तुम्हारे लिये

मैंने सदियों पहले लिखी थी एक कविता 
जो तुम्हारे लिये थी 
जो तुम्हारे बारे में थी .
 
जिसमें तुम्हारी काया का वर्णन था 
जिसमें तुम्हारी दशा चित्रित थी .
 
कविता के सृजन में 
मैंने वेदों से चुने थे शब्द 
पुराणों की महाकाव्यात्मकता पिरोई .
 
तुम्हारे लिये लिखी कविता को मैंने 
पहले तो होठों से होठों तक पहुँचाया 
कि तुम तक पहुंचे वह 
बिल्कुल वैसे ही 
जैसा रचा था मैंने .
 
धूप में जैसी चमड़ी तुमने तपाई थी 
और आँखों में जैसा खून चमकता था 
मैंने चाहा था वह कत्थई रंग बना रहे 
जब मैं करूँ तुम्हारी चमड़ी की चर्चा .
 
लाल रंग प्रखर रहे 
जब मैं करूँ तुम्हारी आँखों की चर्चा .
 
मैंने भोज-पत्रों पर भी लिखा 
उन कविताओं को 
ताकि तुम जब पढना सीख जाओ 
तो पढ़ लो उन्हें ,
और समझो ठीक उसी तरह 
जैसा मैंने तुम्हें समझा था 
और चाहा था समझाना .
 
मैंने हीर -राँझा और आल्हा -उदल के 
बखानों की तरह 
तुम्हारी लिये लिखी कविता को 
बचाना चाहा था ,
कि तुम जब भी सीख लो पढना 
पढो और समझो उन्हें.
ठीक उसी तरह
जैसी वे लिखी गयी हैं तुम्हारे लिये .
 
आज मैंने उसी कविता को
छपवाया है तुम्हारे लिये किताबों में
और डाला है इंटरनेट पर भी ,
कि तुम पढ़ सको उसे .
 
तुम जहाँ  भी हो
अगर तुम्हें मेरी आवाज़ सुनायी दे
तो तुम पढ़ लेना उसे ,
जिसे मैंने बचा कर रखा है
तुम्हारे लिये सदियों से ,
अगर तुम पढ़ सको .
 

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