मैंने सदियों पहले लिखी थी एक कविता
जो तुम्हारे लिये थी
जो तुम्हारे बारे में थी .
जिसमें तुम्हारी काया का वर्णन था
जिसमें तुम्हारी दशा चित्रित थी .
कविता के सृजन में
मैंने वेदों से चुने थे शब्द
पुराणों की महाकाव्यात्मकता पिरोई .
तुम्हारे लिये लिखी कविता को मैंने
पहले तो होठों से होठों तक पहुँचाया
कि तुम तक पहुंचे वह
बिल्कुल वैसे ही
जैसा रचा था मैंने .
धूप में जैसी चमड़ी तुमने तपाई थी
और आँखों में जैसा खून चमकता था
मैंने चाहा था वह कत्थई रंग बना रहे
जब मैं करूँ तुम्हारी चमड़ी की चर्चा .
लाल रंग प्रखर रहे
जब मैं करूँ तुम्हारी आँखों की चर्चा .
मैंने भोज-पत्रों पर भी लिखा
उन कविताओं को
ताकि तुम जब पढना सीख जाओ
तो पढ़ लो उन्हें ,
और समझो ठीक उसी तरह
जैसा मैंने तुम्हें समझा था
और चाहा था समझाना .
मैंने हीर -राँझा और आल्हा -उदल के
बखानों की तरह
तुम्हारी लिये लिखी कविता को
बचाना चाहा था ,
कि तुम जब भी सीख लो पढना
पढो और समझो उन्हें.
ठीक उसी तरह
जैसी वे लिखी गयी हैं तुम्हारे लिये .
आज मैंने उसी कविता को
छपवाया है तुम्हारे लिये किताबों में
और डाला है इंटरनेट पर भी ,
कि तुम पढ़ सको उसे .
तुम जहाँ भी हो
अगर तुम्हें मेरी आवाज़ सुनायी दे
तो तुम पढ़ लेना उसे ,
जिसे मैंने बचा कर रखा है
तुम्हारे लिये सदियों से ,
अगर तुम पढ़ सको .
very nice .......
ReplyDeletethanks shashi ji
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