Saturday, 5 November 2011

यहीं से
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चलो यहीं से क्यों न करें शुरुआत ,
छोटी छोटी खुशियाँ
एक दूसरे की आँखों में भरने  की.
आज छू लें  
उस बच्चे की गाल ,
और प्यार से थप-थपा दें उसे  ,
जो एक हाथ अपनी पैंट खींचता
और दूसरे हाथ बस्ता संभाले
नाक सिकोड़ते
जा रहा हो स्कूल .
आज  चुपके से रख दें
उस आदमी  के कटोरे में दो चपातियां
जो दिन भर रहा हो भूखा ,
और उसकी आँखों में
उमड़ते बादलों का नज़ारा लें ,
आज  पार्क में बेंच पर अकेले बैठे
उस बूढ़े की चुप्पी तुडाकर
दो शब्द कहें अपनापन के ,
और झांके उसकी आँखों में
दूर परदेस में रह रहे
उसके बेटे की अक्स .
स्लेट के लिये अपनी माँ से जिद करती
उस लडकी के हाथों में
कागज का एक जिस्ता  
और दो कठपेंसिलें थमा कर ,
और अचानक जिद को हारते देखें
क्यों न आज हम .
क्यों न आज रिक्शे से उतर कर
अपनी उतरी हुयी कमीज और पतलून
दो  भाड़े के साथ उस रिक्शेवाले को ,
जिसकी पीठ की चमड़ी तुम देखते रहे
रास्ते भर फटी कमीज के पीछे .
क्यों न एक फार्मूला ढूँढें
छोटी छोटी खुशियाँ
एक दूसरे के आँखों में भरने की ,
चलो आज ही करते हैं शुरुआत ,
यहीं से .

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