सच
______
मैं सच बोलना भूल चुका हूँ
याद नहीं कितने बरस पहले
कभी कहा हो सच .
जब पाठशाला में पढाये जा रहे थे
नैतिकता के ककहरे
वहीँ एक अध्याय सच का भी लिखा गया था
और जुमलों के सफों के बीच
अनुशासन के कपड़े जामे बना कर पहनाने को
ब्योंते जा रहे थे .
उन्हीं शब्दों की कतारों के बीच
छलक जाता था कोई अनकहा
जो न चाहते हुए भी आ जाता था
माट साहब की जबान पर और अंटक जाता था
जिसे अपनी ऐनक उठा कर वह
आँखों से कह जाते थे .
और तभी युधिष्ठिर बनना
मेरे लिये दुविधा के दो सींगों के बीच
खड़े होने के समान बन गया था
फिर उस अनकहे की खिलाफत करते हुए
जहन में चल रही उथल -पुथल की जद्दो -जहद में
मैंने चाहा था कभी बन जाऊं युधिष्ठिर .
मैं बनना चाहता था युधिष्ठिर
और कहना चाहता था सच
बगैर लाग -लपेट के .
बगैर शंख और गाजे -बाजे की ध्वनि के
जिसमें न छुपे 'नरो वा कुंजरो '
और अश्वत्थामा पर कोई बहस न हो .
अखाड़े के गाजे- बाजों में
मगर चुप रहना ही है बेहतर
सच कहने की बनिस्बत .
मैं चुप ही रहूँगा
और न कहूँगा सच कभी ,
अगर कहा कभी
तो तुम मुझे भेज दोगे 'पागलखाने '
इसलिए चुप ही रहूँगा मैं .
No comments:
Post a Comment