Friday, 11 November 2011

काश
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मैंने भी तुम्हारी तरह नहीं उठाया
एक रुपये का सिक्का ,
जब मैं गुजर रहा था
उस सिक्के के ऊपर .
 
सिक्के से लौटकर जो चांदी की चमक
आयी थी मेरी आँखों को ,
उस से मेरी भी आंखें चुन्धियायीं थीं .
 
पर मैं नहीं झुका था सड़क पर तुम्हारी तरह
कि कैसा लगेगा लोगों को
एक रुपये के सिक्के के लिये
सड़क पर झुकता हुआ आदमी .
 
पर मैंने  तुम्हारे आचरण से उलट
नहीं दिए थे एक रुपये का सिक्का कभी
उस आदमी को जो रोज बस स्टॉप पर
मांगता था एक रुपये का सिक्का .
कभी सर ,कभी हाथ हिला
मैं उसे देता था
आगे बढ़ जाने का निर्मम संकेत .
 
वह आदमी उस रास्ते पर
क्यों नहीं जाता जहाँ
जहाँ गिरा मिले उसे
एक रुपये का सिक्का ,
जिसे उठाने में
उसे कोई झिझक न हो.
काश वह जाता उधर .

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