Friday, 11 November 2011

हवाएं
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मेरे गाँव में शहर से  आयी थी जो  हवा
वह कई  समंदर पार से आयी थी ,
पास  के समन्दरों में नहीं
था  ऐसा पानी
जो बना सकी थीं ऐसी हवाएं .
 
अलग ही  प्रयोगशाला में
बनाई गयी थीं ये हवाएं .
आईंस्टीन और मैडम क्युरी की प्रयोगशाळा
से बिलकुल अलग .
पड़ोस के समंदर के पानी में
नहीं था ऐसा कोई अवयव
उनकी रसायनिक संरचना अलग थी
उनसे नहीं बन सकती थी ठीक वैसी हवा
 
इस पानी के
नहीं किये जा सकते हिज्जे
जो पैदा करें समान  हवाएं .
बिलकुल वैसा ही जैसी वे
बहतीं थीं दूर देश में .
 
इन हवाओं ने लोगों के चेहरे
शुरू कर दिए थे रंगने
एक ही रंग में .
बच्चे ,जवान ,बूढ़े
सबके चेहरे एक ही रंग में पुते थे
सारे  एक ही जैस लग रहे थे .
 
इन हवाओं की तासीर ऐसी
कि हर आदमी बोल रहा था
एक ही बोली , एक ही भाषा
हमजुबां हो गए थे लोग .
 
हवाओं की  समान उष्णता
चेहरे की पेशियों में 
कर रहीं थीं समान उभार  पैदा .
लोग साथ साथ हँसते थे
लोग साथ साथ उदास होते थे
जैसे लोग अलग अलग न हों
हों कोई क्लोन
 
इन हवाओं का असर था
लोगों की पोशाक एकरंगी हो गयी थी
दूर देश से  रेत  पार करती
हवाएं गरम हो गयी थीं
और सारे प्रदेश को रेगिस्तान
बना रही थीं .
 
क्या पास के समंदर के पानी से
हम नहीं बना सकते
ऐसे गंध ,रूप की हवाएं
जो उदासीन कर सकें
उन हवाओं की तासीर को
जो कर रहीं थी
हमारे हरे भरे प्रदेश को वीरान .
 
 
 

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