सफ़र का सच
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मैं दिल्ली के हवाई अड्डे से ऊड़ कर
रांची के हवाई अड्डे पंहुचा .
हवाई अड्डे में टैक्सी ली
फिर बस अड्डे पंहुचा .
बस में बैठ कर
फिर अपने शहर पंहुचा .
अपने शहर के बस अड्डे से
रिक्शा से अपने घर .
यह घटना इस लिये नहीं रहा बता
कि हवाई जहाज पर चढ़
मैंने अभिजात्य श्रेणी की सीढियां चढीं थीं ,
इस लिये कर रहा हूँ बयां
कि हवाई जहाज पर चढ़
मैंने छुड़ाया था अपना गदह जनम ,
की थी कोई अतृप्त इच्छा पूरी .
और सबसे जरूरी बात यह थी
कि यह सफ़र हवाई जहाज से शुरू होकर
रिक्शे पर हुयी थी ख़तम ,
वह रिक्शा जो मेरी रोज का सवारी था
वही आया काम आखिर में भी .
हवाई जहाज के टिकट लेते वक़्त
कोई मोल तोल
हील हुज्जत का तो सवाल ही नहीं था ,
लेकिन जब रिक्शेवाले ने बीस की जगह
तीस रुपये मांगे थे रात के नाम पर ,
थोड़ी सी तनी थीं मेरी भौंएं .
हवाई जहाज पर चढ़
अश्व नहीं गज शक्ति का आभास हुआ था ,
रिक्शा घोड़े की चाल चला था और
घोड़े की चाल के पीछे थी आदम शक्ति
जो सबसे सस्ते में बिकी थी .
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