Friday, 11 November 2011

 सफ़र का सच
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मैं दिल्ली के हवाई अड्डे से ऊड़ कर 
रांची के हवाई अड्डे पंहुचा .
हवाई अड्डे में टैक्सी ली 
फिर बस अड्डे पंहुचा .
बस में बैठ कर 
फिर अपने शहर पंहुचा .
 
अपने शहर के बस अड्डे से 
रिक्शा से अपने घर .
 
यह घटना इस लिये नहीं रहा बता
कि हवाई जहाज पर चढ़ 
मैंने अभिजात्य श्रेणी की सीढियां चढीं थीं , 
इस लिये कर रहा हूँ बयां 
कि हवाई जहाज पर चढ़ 
मैंने छुड़ाया था अपना गदह जनम ,
की थी कोई अतृप्त इच्छा पूरी .
 
और सबसे जरूरी बात यह थी 
कि यह सफ़र हवाई जहाज से शुरू होकर 
रिक्शे पर हुयी थी ख़तम ,
वह रिक्शा जो मेरी रोज का सवारी था 
वही आया काम आखिर में भी .
 
हवाई  जहाज के टिकट लेते  वक़्त 
कोई मोल तोल
हील हुज्जत का तो सवाल ही नहीं था ,
लेकिन  जब रिक्शेवाले ने बीस की जगह 
तीस रुपये मांगे थे रात के नाम पर ,
थोड़ी सी तनी थीं मेरी भौंएं .
 
हवाई जहाज पर चढ़
अश्व नहीं गज शक्ति का आभास हुआ था ,
रिक्शा घोड़े की चाल चला था और
घोड़े की चाल के पीछे थी आदम शक्ति
जो सबसे सस्ते में बिकी थी .
 

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