Friday, 11 November 2011

बहस
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मैं जुलूस में चलता रहा औरों के संग
मैं भी शहर के सबसे बड़े चौराहे पर गया
मैंने भी लगाई एक रंगी टोपियाँ ,
फहराया तिरंगा
और नारों की आवाज़ को दी अपनी आवाज़ .
 
बहस मुहासिबे में मैं रहा उलझा
संविधान के पन्नों पर
जन तंत्र के चार पहियों पर .
कि चलता रहे सब ठीक ठाक
कि कुछ भी गड़बड़ी हो अगर
पहियों में
तो उन्हें सुचारू रूप में चलने की
जुगाड़ की जा सके .
कि पहियों में आती खचर -पचर की आवाज़ को
दुरुस्त किया  जाय
कि जंग लगे लोहे के पिनों पर
की जाय तेल मालिस 
और स्वतंत्रता के एक्सप्रेस वे पर
दौड़ती रहे जन तंत्र की गाड़ी .
 
यह बहस चौराहे  के सामूहिक आयोजन से
जब कुछ लोग ले जाते हैं
रेस्तौरांत के वातानुकूलित कमरों में
बीयर की चुस्की के साथ
मुर्गे की भूनी  टांग टूंगते हुए
तो बहस और भी अर्थवान लगती है ,
संकल्प शक्ति और बढ़ जाती है -
बहस को आगे बढ़ाने की
और किसी तार्किक परिणति तक ले जाने की ,
इसी स्थल पर -
किसी अगले इतवार .

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