अनदेखा अनजाना सच
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सच अक्सर मेरे पास से गुजर जाता है
और अक्सर उसे पहचानने में
मैं गलतियाँ कर जाता हूँ .
कई बार वह चीजों की शक्ल में
गुजरता है
पर उसकी गंध नथुनों को नहीं आती
उसकी काया नज़रों में नहीं समाती .
बचपन से देखने और सूंघने की कला
जो सीखाई गयी पाठशालाओं में
शिक्षकों के द्वारा
उसमें पारंगत न हो पाना
उनकी गलती नहीं ,
गलती समझने के उस तरीके में था
जिसे मैं नहीं पकड़ पाया सही सही .
खुर्दबीन की तरह चीजों को देख पाने की तरकीब
और अणुओं परमाणुओं की व्याख्या ,
इनसे वंचित हो जाने से ही
होती रही सारी गलतफहमियाँ .
और होती रहीं गलतियाँ
और समझता रहा मैं उन्हें ठीक वैसे ही
जैसे दीखती रहीं वे .
ठीक वैसे ही जैसे सूरज सूरज जैसा
चाँद चाँद जैसा
धरती,पेड़ ,आकाश ,सागर
पहाड़ , झरने ,नदियों जैसा .
और मैं यह समझ नहीं पाया
कि सफ़ेद पोशाक पहने और उजली भाषा बोलते
आदमी की
पोशाक कितनी सफ़ेद है
और भाषा कितनी उजली है .
कि उनकी हमदर्दियों में कितना है दर्द
कि उनकी मेहरबानियों में है कितनी मेहरबानी .
और मैं खोजता रहा कथनियों में कथ्य
कथनी में कर्म .
हताश निराश मैं ,
मुझे आज भी तलाश है
एक ऐसे गुरु की
जो मुझे सिखा दे
मेरे अनदेखे अनजाने सच को
देखने जानने की कला .
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