Friday, 11 November 2011

अनदेखा  अनजाना सच 
_______________ 
 
सच अक्सर मेरे पास से गुजर जाता है
और अक्सर उसे पहचानने में
मैं गलतियाँ कर जाता हूँ .
कई बार वह चीजों की शक्ल में
गुजरता है
पर उसकी गंध नथुनों को नहीं आती 
उसकी काया नज़रों में नहीं समाती .
 
बचपन से देखने और सूंघने की कला 
जो सीखाई गयी पाठशालाओं में 
शिक्षकों के द्वारा 
उसमें पारंगत न हो पाना 
उनकी गलती नहीं ,
 
गलती समझने के उस तरीके में था 
जिसे मैं नहीं पकड़ पाया सही सही .
खुर्दबीन की तरह चीजों को देख पाने की तरकीब 
और अणुओं परमाणुओं की व्याख्या ,
इनसे वंचित हो जाने से ही 
होती रही सारी गलतफहमियाँ .
 
और होती रहीं गलतियाँ 
और समझता रहा मैं उन्हें ठीक वैसे ही 
जैसे दीखती रहीं वे .
ठीक वैसे ही जैसे सूरज सूरज जैसा 
चाँद चाँद जैसा
धरती,पेड़ ,आकाश ,सागर 
पहाड़ , झरने ,नदियों जैसा .
 
और मैं यह समझ नहीं पाया
कि सफ़ेद पोशाक पहने और उजली भाषा बोलते
आदमी की
पोशाक कितनी सफ़ेद है
और भाषा कितनी उजली है .
 
कि उनकी हमदर्दियों में  कितना है दर्द
कि उनकी मेहरबानियों में है कितनी मेहरबानी . 
और मैं खोजता रहा कथनियों में कथ्य
कथनी में कर्म .
 
हताश निराश मैं ,
मुझे आज भी तलाश है
एक ऐसे गुरु की
जो मुझे सिखा दे
मेरे अनदेखे अनजाने सच को
देखने जानने  की कला .
 
 
 

No comments:

Post a Comment