Friday, 11 November 2011

समय
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समय जो बीतता है 
चलता ही जाता है अपनी रफ़्तार 
 
समय बीतता है गाँव में 
पीपल की छाँव में 
बुधिया कुम्हार के चाक पर 
होती है उसकी रफ़्तार .
 
समय बीतता है
छग्गू  मल्हार की नाव में 
बूंद बूंद रिसते 
नदी के पानी की तरह .
 
समय की रेत-घड़ी 
रीतती ही जाती है 
रौंदती ही जाती है 
सपनों की छाँव .
 
समय रुक जाता है
दुखिया के छप्पर पर
सूराखों से आती 
सूरज की रोशनी में
खोज रहा वह अपनी ठाँव .
 
 
 

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