समय
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समय जो बीतता है
चलता ही जाता है अपनी रफ़्तार
समय बीतता है गाँव में
पीपल की छाँव में
बुधिया कुम्हार के चाक पर
होती है उसकी रफ़्तार .
समय बीतता है
छग्गू मल्हार की नाव में
बूंद बूंद रिसते
नदी के पानी की तरह .
समय की रेत-घड़ी
रीतती ही जाती है
रौंदती ही जाती है
सपनों की छाँव .
समय रुक जाता है
दुखिया के छप्पर पर
सूराखों से आती
सूरज की रोशनी में
खोज रहा वह अपनी ठाँव .
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