Friday, 11 November 2011

तानाशाह के बाद 
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अब बंदूकें नहीं करेंगीं बेवज़ह गगनभेदी शोर 
उस से निकली  गोलियां 
नहीं भेदेंगी किसी निहत्थे निरीह  के सीने को .
 
अब हम मिल सकेंगे उस पार्क में निर्भीक होकर  
जहाँ शाम ढले खट-खटाती थीं बूटें,
और बूटें  करतीं थीं
एक ऐसी डरावनी आवाज़ पैदा
जिनसे टूट जाते थे हमारे सपने .
 
हमारी  विस्फारित आकाँक्षाओं को
समेटे हुए था जो एक अनजाना साया
उनके प्रस्फुटन का आ गया है समय ,
हमारी आँखों में अन्खुआये सपनों में .
 
संगीनों की नोक  तले बचपन के
जवान होने का समय अब नहीं रहा ,
फूलों की वादियों में
पैदा होगा एक नया अहसास ,
कींचड से सनी मिटटी में
सन  रहे होंगे मजबूत होते पाँव.
 
 उदीप्त ख्वाहिशें जो गुलमोहर के पीछे
झाड़ियों में कैद थीं
झाड़ियों में फंसी हुयी चिड़िया सी निकल
आ गयी है बेख़ौफ़ नीले आसमान में ,
और भर रही हैं  उन्मुक्त उड़ान  .
 
एक पीढी जो पैदा हुयी ,जवान हुयी
और हो गयी बूढ़ी ,
जिनके शब्दकोश में न थे 
कई शब्द -
आशाएं , जिज्ञासाएं , अभिलाषाएं 
हिम्मत ,आवाज़ और सपने 
उन्होंने नौनिहालों  को 
सिखाना शुरू कर दिया है 
इनका ककहरा . 
 
दिमाग पर लगे पहरे हट गए हैं
और लोगों ने फिर से शुरू कर दिया है
सोचना उस अँधेरी सुरंग से बाहर निकल कर ,
जहाँ बिठाये थे तानाशाह ने पहरे
और जहाँ जीवन के अंतिम पलों में
तानाशाह पाया गया था .
 
 
 
 
 

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