Friday, 11 November 2011

गाँठ
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हमारी चुप्पी के पीछे एक गाँठ थी
जिसे हमने बना लिया था तब
जब हम खूब बोला बतियाया करते थे ,
हंस हंस कर .
 
लेकिन जब  हम हंस रहे थे खिल -खिलाकर
तब पता नहीं था बन जाएगी ऐसी गाँठ ,
जो कभी खुले नहीं धागों की तरह
और उनकी  वर्तुलाकार मरोंडे हुए संघनित
और चस्पां हुए अरूप जज्बातों की तरह .
 
संग संग रहते हुए भी हम कब निसंग हुए
कब हमारे बीच पत्थर की तरह  आयी  
कठोर ,निष्ठुर ,धुंधली सी बर्फानी सामानांतर रेखा ,
इसे हम जान पाए बहुत बाद चल कर
उन्हीं रेखाओं  पर तलुए जला कर .
 
तुम्हारे नरम  और उष्म होठों से
चुरायी गयी मुलामियत  और उनकी गरमाहट ,
जो बर्फ के भापों की तरह उडती रही फिजा में ,
और उन्हें पकड़ने की जुगत में
मेरे हाथ जमते रहे सर्द से
और जर्द हुईं  हथेलियों की रेखाएं .
 
ऐसा क्यों होता है हब हम घनिष्ठता का 
बुन रहे होते हैं ताना बाना ,
ठीक उसी वक़्त हम चुन रहे होते हैं 
दो विपरीत दिशाओं में जाने के रास्ते , 
जब गांठें खुलती भी हैं 
तो बिखर जाती हैं उन्हीं रास्तों पर . 

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