गाँठ
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हमारी चुप्पी के पीछे एक गाँठ थी
जिसे हमने बना लिया था तब
जब हम खूब बोला बतियाया करते थे ,
हंस हंस कर .
लेकिन जब हम हंस रहे थे खिल -खिलाकर
तब पता नहीं था बन जाएगी ऐसी गाँठ ,
जो कभी खुले नहीं धागों की तरह
और उनकी वर्तुलाकार मरोंडे हुए संघनित
और चस्पां हुए अरूप जज्बातों की तरह .
संग संग रहते हुए भी हम कब निसंग हुए
कब हमारे बीच पत्थर की तरह आयी
कठोर ,निष्ठुर ,धुंधली सी बर्फानी सामानांतर रेखा ,
इसे हम जान पाए बहुत बाद चल कर
उन्हीं रेखाओं पर तलुए जला कर .
तुम्हारे नरम और उष्म होठों से
चुरायी गयी मुलामियत और उनकी गरमाहट ,
जो बर्फ के भापों की तरह उडती रही फिजा में ,
और उन्हें पकड़ने की जुगत में
मेरे हाथ जमते रहे सर्द से
और जर्द हुईं हथेलियों की रेखाएं .
ऐसा क्यों होता है हब हम घनिष्ठता का
बुन रहे होते हैं ताना बाना ,
ठीक उसी वक़्त हम चुन रहे होते हैं
दो विपरीत दिशाओं में जाने के रास्ते ,
जब गांठें खुलती भी हैं
तो बिखर जाती हैं उन्हीं रास्तों पर .
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