Wednesday, 7 December 2011

तराजू के दोनों पलड़ों के बीच से

1
मैंने सबसे पहले तराजू के दोनों पलड़ों के बीच से 
आपकी आँखों को देखा था 
जब आपने गल्ले की दुकान पर बैठे सेठ को 
बढाया था हाथ की परची ,
जिसमें था आपके महीने भर का 
राशन का बजट .
 
आपकी फेहरिस्त में था -
चावल ,आटा, किस्म किस्म का  दाल
तेल , मसाले ,हल्दी , नमक , तेजपत्ते .
 
तराजू के दोनों पलड़ों के बीच से ही
मैं देखा करता था आपकी जरूरतें ,
और तौला करता था जिंसों को
जो आपके जिस्म की सलामती के लिये
बेहद जरूरी थीं .
 
जिंसों को तौल कर
मैं बड़े ही सलीके से
बाँधा करता था उन्हें
कागज के ठोंगों में ,
और फिर सुतली से बांध
उन्हें भर दिया करता था
आपके थैले में .
 
और ऊपर से दोनों मुट्ठी  भर तेजपत्ते
मुफ्त में आपके थैले में रख देता .
 
2
 
तराजू के दोनों पलड़ों के बीच ही
मैंने पाया कि उनके पलड़े भी
हो गए बेमानी ,
जब मेरे हाथ उन पलड़ों पर
सामान तौलने की बजाय
चावल , दाल , आटे और तेल मसालों के
बंद पैकेट उठाने में ज्यादा व्यस्त रहने लगे .
 
और  तेजपत्ते भी अब बिकने लगे थे .
 
3
 
सालों तक गल्ले की दुकान में नौकरी के बाद
फिर मैं हूँ नौकरी की तलाश में .
 
मैं झांक भी आया हूँ ,
उन  शीशों के भीतर ,
जहाँ आपके  हाथ  खुद उठा रहे थे
जिंसों के पैकेट को ,
और जल्दबाजी में  रख रहे थे उन्हें
प्लास्टिक की टोकरी में .
 
दुकान से बाहर आने पर
सुनहली खाकी ड्रेस में दरवान
आपको  सलाम बजाता था ,
और आप  चंद सिक्के रख रहे थे
उसकी हथेलियों पर .
 
मैं समझ गया था
मेरी जगह तराजू के दोनों पलड़ों की बीच
अब कहीं नहीं थी ,
अब वह दुकान के बाहर आ गयी थी .
 

शासक-5

शासक ने बरसाये थे कोड़े
मेरे परदादा के पूर्वजों की पीठ पर  ,
सदियों पहले .
 
मेरे दादा ने देखा था
जख्म के निशान
मेरे परदादा की पीठ पर ,
उनकी फटी कमीज के नीचे .
 
उदविकास के दौरान
परदादा के पूर्वजों की पूंछ
हालाँकि कट गयी थी
और हट गयी थी ,
पर जख्म के निशान हरे थे .
 
पीढी दर पीढी
वह निशान मुझ तक
आ पहुंचा है ,
और मैं सोच में
पड़ जाता हूँ ,
कहीं मेरी संतति भी
कहीं झांक न ले ,
मेरी फटी कमीज के नीचे
कोड़ों के वह निशान .

शासक-4

शासक ने कहा -
मुझे सोने दो ,
कोई मुझे नींद से न जगाये
जब तक मैं खुद ही न जागूँ ,
क्योंकि उसे सपने देखने हैं
तुम्हारी खुशहाली के ,
तुम्हारी बेहतरी के .
 
सोने दो शासक को
वह सोया है कुम्भकर्णी नींद ,
न बजाओ ढोल ,ताशे .
 
शासक ने कहा है
कुछ सालों के बाद
वह खुद जाग जायेगा ,
और तुम्हारे दुःख -दर्दों
की खबर लेगा ,
उन  पर मरहम लगाएगा
खुद अपने हाथों से ,
तभी वह फिर लेगा
अपनी निरंतरता के
इकरारनामे पर
तुम्हारे हस्ताक्षर .
 

शासक-3

शासक ने कहा -
शोर मत करो
नारे मत लगाओ ,
तुम वैसे ही दशहरे ,दीवाली
ईद  और मुहर्रम पर
करते हो बहुत शोर .
 
शहर के हडताली चौक पर
अगर कभी दिखे नारे लगाते
तो मेरे सिपाही
बेंत के डंडों से
फोड़ देंगे तुम्हारा सर .
 
चिल्लाने का बहुत ही शौक है तो
घर में ही कर लेना हरि- कीर्तन ,
बस इसकी इजाजत  देता हूँ तुम्हें  .

शासक -2

शासक ने कहा -
मुझसे प्रेम  करो .
क्योंकि प्रेम में आदमी 
हो जाता है अँधा ,
और अँधा आदमी 
नहीं देख पाता
कुरूपता और कारनामे . 

शासक-1

शासक  ने कहा
अनुशासन में रहो .
मैंने पूछा अनुशासन क्या है .
जवाब मिला  -
कुछ न देखना
कुछ न सुनना
कुछ न कहना ही
अनुशासन है.

सर्दियों में

सर्दी  का आगाज़ हो चुका था  
लोग गरम कपड़े खरीद रहे थे
लोग लिहाफ दुरुस्त करवा रहे थे .
 
मौसम विज्ञानियों की भविष्यवाणी ने
फैला रखी थी  दहशत -
उनकी भविष्यवाणी ठंढ के बारे में थी ,
उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया था
इस बार की ठंढ
हजारों लाखों  बरस के ठंढ के मुकाबिले
सबसे ज्यादा होगी .
 
जैसे उन्होंने हजारों लाखो बरस पहले भी
अपने ईजाद किये उपकरणों से ही
मापा था ठंढ  को .
 
उन्होंने साफ़ साफ़ मुनादी कर दी थी
कि हिमालय पर जम जायेंगे
पहले से कई गुना ज्यादा बर्फ ,
जम जाएँगी नदियाँ
और यह ठंढ इस बार
हाड कंपा देगी .
 
टेलीविजन के कई चैनल गवाह थे,
जो  किसी पूजा के पंडाल में 
लगे रिकॉर्ड प्लयेर में गाने  की तरह 
बार बार बज  रहे थे .
 
उनकी  बार बार दी जानेवाली चेतावनी
से लोग जम रहे थे
लोग सहम रहे थे .
 
उन्होंने यहाँ तक कहा था
कि मुंबई तक भी इतनी ठंढ पहुंचेगी
कि सिहर जाएगी मुंबई
ठहर जाएगी मुंबई .
 
पिछली गर्मियों में भी
उन्होंने की थी भविष्यवाणी
कि इस बार रिकॉर्ड गर्मी पड़ेगी
तालाब  सूख जायेंगे
नदियाँ सूख जाएँगी ,
पिघल जायेंगे ग्लेशियर
और समूचा संसार हो जायेगा
जल -प्लावित .
 
 
और इसलिए लोग डर रहे थे
कि सिर्फ जल -प्लावन को छोड़ कर
सारा कुछ हो ही गया था लगभग .
जमीं दरक गए थे
नदी- नाले सूख गए थे .
गर्मियों से मरे थे कई डांगर .
 
लोग डर रहे थे
कड़ाके की ठंढ उनके हाड न कंपा दे
और इसलिए
वे दुरुस्त करवा रहे थे लिहाफ
खरीद रहे थे गरम ऊनी कपड़े
ला रहे थे 'हॉट ब्लोअर' .
 
 
मेरे गाँव का कलुआ भी कर रहा था
सरदी से बचने का उपाय ,
कर रहा था गूदड़ी के बिस्तर को मोटा ,
चीथड़े कपड़ों से ,
 
मौसम विज्ञानियों की खतरनाक 
भविष्यवाणी जाने बिना भी
वह जमा कर रहा था सूखी लकडियाँ ,
कि वह पूस की रातों में
हाड़ कंपाने वाली ठंढ से बचे .
 
उसे मालूम था तो सिर्फ यही
कि हर बरस हाड़ कंपानेवाली ठंढ पड़ती है
हर बरस उसकी बस्ती के बूढ़े
मर जाते हैं कड़ाके की ठंढ से
जो पहुँच जाती है
देह को छेद कर हाड़ तक .
 
उसे एमर्सन राड , हॉट ब्लोअर , गीजर के बारे में
कुछ पता नहीं ,
उसे सिर्फ यही पता है
कि अलाव के पास बैठ कर
काटी जा सकती है रात ,
ठंढ से बचते हुए .
 
उसे यह भी पता है
कि खैरात में  मिलनेवाली कम्बल 
मिलेगी जाड़े के बाद
जब वह जिन्दा बच रहा  होगा
जाड़े के बाद .
 
वह कर रहा है
सर्दियों की तैयारी
सर्दियों से बचने की तैयारी .
 
वह कर रहा सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा
इस भय से
कि कहीं खैरात में
किसी ने नहीं जलाई अलाव ,
तो सूखी लकड़ियाँ बचा सकें उसे
हाड़ कंपानेवली ठंढ से .
 
 

कविता तुम्हारे लिये

मैंने सदियों पहले लिखी थी एक कविता 
जो तुम्हारे लिये थी 
जो तुम्हारे बारे में थी .
 
जिसमें तुम्हारी काया का वर्णन था 
जिसमें तुम्हारी दशा चित्रित थी .
 
कविता के सृजन में 
मैंने वेदों से चुने थे शब्द 
पुराणों की महाकाव्यात्मकता पिरोई .
 
तुम्हारे लिये लिखी कविता को मैंने 
पहले तो होठों से होठों तक पहुँचाया 
कि तुम तक पहुंचे वह 
बिल्कुल वैसे ही 
जैसा रचा था मैंने .
 
धूप में जैसी चमड़ी तुमने तपाई थी 
और आँखों में जैसा खून चमकता था 
मैंने चाहा था वह कत्थई रंग बना रहे 
जब मैं करूँ तुम्हारी चमड़ी की चर्चा .
 
लाल रंग प्रखर रहे 
जब मैं करूँ तुम्हारी आँखों की चर्चा .
 
मैंने भोज-पत्रों पर भी लिखा 
उन कविताओं को 
ताकि तुम जब पढना सीख जाओ 
तो पढ़ लो उन्हें ,
और समझो ठीक उसी तरह 
जैसा मैंने तुम्हें समझा था 
और चाहा था समझाना .
 
मैंने हीर -राँझा और आल्हा -उदल के 
बखानों की तरह 
तुम्हारी लिये लिखी कविता को 
बचाना चाहा था ,
कि तुम जब भी सीख लो पढना 
पढो और समझो उन्हें.
ठीक उसी तरह
जैसी वे लिखी गयी हैं तुम्हारे लिये .
 
आज मैंने उसी कविता को
छपवाया है तुम्हारे लिये किताबों में
और डाला है इंटरनेट पर भी ,
कि तुम पढ़ सको उसे .
 
तुम जहाँ  भी हो
अगर तुम्हें मेरी आवाज़ सुनायी दे
तो तुम पढ़ लेना उसे ,
जिसे मैंने बचा कर रखा है
तुम्हारे लिये सदियों से ,
अगर तुम पढ़ सको .
 

देह लिये भागते लोग -२

देह लिये भागते लोग भागते ही रहते हैं
अंतहीन रास्ते पर अंधाधुंध
घोड़े की तरह सरपट होती है
उनकी रफ़्तार .
 
उनकी फूलती सांसें
उनकी दक्षता का गवाह नहीं होतीं
न ही सांसों के फूलने से
उन्हें उनका मकाम हासिल होता है .
 
वे तो कोशिश भर करते हैं
पहाड़ को तोड़ चट्टान बनाने की
उनके सपनों में होता है
चट्टान को पीस कर मिटटी बनाना .
 
उर्वर मिटटी में बीज डाल कर
पौधे उगाने का सपना .
और इसीलिए वे दौड़ते हैं
अनवरत ,अनथक .
 
यह जानते हुए भी कि
धान उगाते  आदमी को नहीं होता  
पेट भर चावल नसीब ,
फलों को जूस के लिये
पेरते हुए आदमी को भी 
रोटी का कौर बमुश्किल मिलता है .
 
बनिए की दूकान पर गल्ला तौलता आदमी भी
कभी -कभी रह  जाता है भूखा 
और कपड़ों की थान दिखाता 
आदमी भी रह जाता है अध-नंगा  .
 
देह लिये भागते आदमी
के ह्रदय की शिराओं से चूता है रक्त
और सांसों की धौंकनी के बीच 
चलती हुयी बर्फानी हवा 
उसके मंसूबों को ठंडी करती हुयी 
रक्त के बर्फ जमा डालती है .
 
अपने मंसूबों को जमने से बचाने की खातिर 
वह दौड़ता रहता है अंतहीन रास्ते पर .
 
देह लिये भागते  लोगों   का 
कोई नाम नहीं होता 
वे  अनाम पैदा होते  हैं
और बे-नाम ही मर -खप जाते हैं ,
तभी तो -
इतिहास में उनका  नाम नहीं होता . 
 

देह लिये भागते लोग

मैं देखता हूँ रोज 
देह लिये भाग रहे हैं लोग,
बेमन .
 
कोई साथ नहीं खुद के
अपनी अपनी जिस्म के साथ लोग
चढ़ रहे बसों में ,ट्रामों में
रेलगाड़ियों में , कारों में
रिक्शों में .
 
यहाँ तक कि खुद पैदल चलता आदमी भी
संग नहीं खुद के .
 
कोई राह में नहीं करता किसी से बात
कोई किसी से नहीं करता हंसी- ठठ्ठा
हर शख्स पेशानियों की लकीरों को गहराता हुआ
अपनी सोच और चिंताओं के साथ
ढो रहा है अपना वज़न .
 
भागते हुए अनिद्र आदमी ने   बाँधी है 
अपनी देह के साथ 
अपने सपनों  की एक भारी पोटली 
जिसमें है बहुत कुछ अकथ्य ,अनिर्वचनीय .
 
सुनहले सपनों को आसमान से जमीन पर
उतारने की कोशिश में
अपनी देह लिये
भाग रहे हैं लोग .
 
देह लिये भागते  लोगों की सुनहली गठरी में
उनके  बच्चों के भविष्य के सुनहले सपने हैं ,
सपनीले  आशियाने के मजबूत इरादे हैं
माता पिता की खुशहाली है .
 
और उन चिंताओं
उन सपनों के लिये
बंजर, उबड़ -खाबड़, कंटीले रास्तों पर
दौड़ पाने की  चुनौती है ,
 
देह की खुशहाली के लिये
देह को तपाने की मजबूरी है .
 
तभी तो
शाम की रोटी के लिये सुबह से भागते लोग
भागते ही रहते हैं एक अंतहीन रास्ते पर ,
अपनी देह लिये अपने ही साथ .
 
 

Saturday, 12 November 2011

तस्वीर

तस्वीर बनाना चाहता हूँ
हरे भरे पहाड़ों की
जिसमें न हो धूल गर्द ,
केवल हरा ही हरा हो सब कुछ .
 
पर तस्वीर में उकर आती है
सूखी कड़क दरकी हुयी  फटी जमीन ,
हरे रंग की जगह उभर आते हैं
उदास पीले मटमैले रंग .
 
एक महल बनाना चाहता हूँ  
रत्नजडित खम्भों और दीवारों की
पर  कैनवास पर बन जाती है
कच्ची मिटटी की दीवारों की
फूस की  छप्परोंवाली एक झोंपड़ी .
 
मैंने चाहा था बनाना
एक गोल मटोल गलगुथना बच्चा
बन गया वह
अकाल पीड़ित सूखा ग्रस्त प्रदेश
का हर एक अगला बच्चा .
 
एक जवाँमर्द की तस्वीर
बदल गयी
पिचके गाल कृशकाय शख्स की
जवानी में .
 
और तो और
एक बूढ़े की तस्वीर तो
बदल गयी शैय्या पर बैठे
मृत्यु के इंतज़ार में
किसी आदमी में .
 
बना न सका
हरे भरे पहाड़ोंवाली तस्वीर
रत्नजडित महलों की तस्वीर
गलगुथने बच्चे
फुर्तीले युवा
स्वस्थ बूढ़े की तस्वीर .
 
मेरी तूलिका साथ नहीं दे रही
जिम्मेवार कौन
मैं नहीं जानता
मेरा बस चले
तो मैं बनाऊं हमेशा
रत्नजडित महल की तस्वीर
हरे भरे पहाड़ों की तस्वीर .
 
 

Friday, 11 November 2011

तुम जो उर्फ़ रोटी का फर्क

 
तुम जो सुबह  अपनी रिक्शा से
मुझे अपने दफ्तर छोड़ते हो 
तुम जो शाम को मुझे अपने 
घर पहुँचाते  हो .
तुम जो मेरे जूते की पालिश करते हो 
तुम   जो मेरे कपड़ों पर इस्तरी लगाते हो 
तुम  जो मेरे रास्ते को सुगम बनाने के लिये 
पत्थर तोड़ते हो दिन भर .
तुम जो काम करते हो यह सब
अपनी रोटी के लिये मेरी ही तरह .
तुम जब मुझे घर छोड़ते हो
तो फिर किसी को छोड़ते हो घर
मेरे जूतों  के बाद भी
किसी और जूते पर करते हो पालिश
मेरे कपड़ों के बाद
किसी और कपड़े पर
चला रहे होते हो इस्तरी .
मेरे घर पहुँच  जाने के बाद भी
पत्थर तोड़ते हुए
तोड़ते हो अपनी हाड़ .
शाम को मैं घर पहुँच कर  देखता हूँ
ब्रांडेड आटे को गुंथे जाते  हुए 
अपनी रोटी के लिये तैयार होते हुए .
तुम तब भी पहुंचा रहे होते हो
किसी को घर
पालिश कर रहे होते हो जूते
इस्तरी कर रहे होते हो कपड़े
हाड़ तोड़
तोड़ते हो पत्थर .
क्योंकि तुम्हें अच्छी तरह पता है  
तुम्हारे लिये आटा पिसा जाना
अभी बाकी है
किसी चक्की में .
सच
______
मैं सच बोलना भूल चुका हूँ
याद नहीं कितने बरस पहले
कभी कहा हो सच .
 
जब पाठशाला में पढाये जा रहे थे
नैतिकता के ककहरे
वहीँ एक अध्याय सच का भी लिखा गया था
और जुमलों के सफों के बीच
अनुशासन के कपड़े जामे बना कर पहनाने को
ब्योंते जा रहे थे .
 
उन्हीं शब्दों की कतारों के बीच
छलक जाता था कोई अनकहा
जो न चाहते हुए भी आ जाता था
माट साहब की जबान पर और अंटक जाता था
जिसे अपनी ऐनक उठा कर  वह
आँखों से कह जाते थे .
 
और तभी युधिष्ठिर बनना 
मेरे लिये दुविधा के दो सींगों के बीच 
खड़े होने के समान बन गया था 
फिर उस अनकहे की खिलाफत करते हुए 
जहन में चल रही उथल -पुथल की जद्दो -जहद में
मैंने चाहा था कभी बन जाऊं युधिष्ठिर .
 
मैं बनना चाहता था युधिष्ठिर 
और कहना चाहता था सच 
बगैर लाग -लपेट के .
बगैर शंख और गाजे -बाजे की ध्वनि के 
जिसमें न छुपे 'नरो वा कुंजरो '
और अश्वत्थामा पर कोई बहस न हो .
 
अखाड़े के गाजे- बाजों में 
मगर चुप रहना ही है बेहतर 
सच कहने की बनिस्बत .
 
मैं चुप ही रहूँगा
और न कहूँगा सच कभी ,
अगर कहा कभी
तो तुम मुझे भेज दोगे 'पागलखाने '
इसलिए चुप ही रहूँगा मैं .
 
 
सुथनी
____
सुथनी आलू की कोई बहन ही होगी
या होगा उसका कोई दूर दूर का
नजदीकी  रिश्ता .
 
आलू सदियों से  संपूर्ण आहार था
उनका जिनके तन पर कपड़े भी न थे
और सुथनी भी साथ साथ
भरती रही उन  भूखे पेटों को .
 
पता नहीं क्यों कर और किसने
रखा नाम सुथनी .
आलू से उलट बेस्वाद होना उसकी
फितरत थी
और  किसी को बेवजह उदास
होते देखे जाने पर
उसके चेहरे की तुलना सुथनी से की जाती .
 
आलू की तरह कई गढ़े थे उस पर
पर कान पर उगे बालों की तरह
उसे थे हलके बाल .
पतली चमड़ियों के साथ
गौर वर्ण मुस्काती थी वह
अपनी पूर्ण आकाँक्षाओं और उम्मीदों के साथ . 
 
सुथनी की कोई थनें न थीं गायों की तरह
और न ही उस से दूध की तरह
सुस्वादु होने की उम्मीद की जा सकती थी .
 
हाँ ,मुसहरों ने चूहों के मांस के साथ
जरुर परोसा होगा उसका चोखा
अपने आहार में .
 
पूस की कई रातों में
अलाव के साथ उसनी गयी होगी वह 
जिसे खा कर कितनों ने
जगाई होंगी बेहतर कल की उम्मीदें .
 
सुथनी पवित्र थी
वह भी चढी छठ में सूप पर
अर्घ्य बनकर सूर्य की
और इस वक़्त बिकी वह
सेव से भी महंगी
 
जबकी रुपये वैसे ही गिर रहे थे
अंतर -राष्ट्रीय बाज़ार में
और तेल चढ़ रहा  था
 
सुथनी फिर साल में एक बार ही
खोजी जायेगी
और सिर्फ तभी वह होगी
अपने पूरे भाव में .
 
 
 
 
मोमबत्ती
______
बत्ती ने काठ से मोम तक का
सफ़र तय किया था
कई सदियों में
और वह बनी मोमबत्ती.
 
लुकाठी में जलती आग
पहली बार लगी थी प्यारी और खूबसूरत
जब उसे मिला था मोम का सहारा .
 
मोम ने मर्म को छुआ था कई बार
और हम जलाने लगे थे मोमबत्तियां ,
शुभ और मार्मिक स्थलों पर .
 
हमने रिझाये लक्ष्मी को
दीपावली  के अवसर पर ,
खुशियों  की मोमबत्ती जला कर
और मोमबत्तियां जला कर
प्रकट की संवेदना
सामूहिक स्थलों पर
अपने प्रिय जनों की याद में
जो मारे गए सामूहिक नरसंहारों में .
 
काठ में लगी आग
जब सामूहिक उत्साह और लक्ष्य
को इंगित थी
वहीं मर्म स्थल से पिघली चेतना
मोम के रूप में संघनित हुयी थी
जो पिघलती थी
जब जब हमारा मर्म होता था आहत.
 
मोम ने दिया था एक सन्देश
काठ के दिलों को मोम होने का
मोम ने पत्थर दिलों को
पिघलाने की की थी एक अदना सी कोशिश
मोम बना सदाशयता और सहृदयता का संबल
 
यह मोमबत्ती जलती रहे
सदियों तक युगों तक
यूँ ही  अपनी रौ में
ठीक ऐसे  ही
अपने पूरे  वजूद के साथ.
 
 
हवाएं
______
मेरे गाँव में शहर से  आयी थी जो  हवा
वह कई  समंदर पार से आयी थी ,
पास  के समन्दरों में नहीं
था  ऐसा पानी
जो बना सकी थीं ऐसी हवाएं .
 
अलग ही  प्रयोगशाला में
बनाई गयी थीं ये हवाएं .
आईंस्टीन और मैडम क्युरी की प्रयोगशाळा
से बिलकुल अलग .
पड़ोस के समंदर के पानी में
नहीं था ऐसा कोई अवयव
उनकी रसायनिक संरचना अलग थी
उनसे नहीं बन सकती थी ठीक वैसी हवा
 
इस पानी के
नहीं किये जा सकते हिज्जे
जो पैदा करें समान  हवाएं .
बिलकुल वैसा ही जैसी वे
बहतीं थीं दूर देश में .
 
इन हवाओं ने लोगों के चेहरे
शुरू कर दिए थे रंगने
एक ही रंग में .
बच्चे ,जवान ,बूढ़े
सबके चेहरे एक ही रंग में पुते थे
सारे  एक ही जैस लग रहे थे .
 
इन हवाओं की तासीर ऐसी
कि हर आदमी बोल रहा था
एक ही बोली , एक ही भाषा
हमजुबां हो गए थे लोग .
 
हवाओं की  समान उष्णता
चेहरे की पेशियों में 
कर रहीं थीं समान उभार  पैदा .
लोग साथ साथ हँसते थे
लोग साथ साथ उदास होते थे
जैसे लोग अलग अलग न हों
हों कोई क्लोन
 
इन हवाओं का असर था
लोगों की पोशाक एकरंगी हो गयी थी
दूर देश से  रेत  पार करती
हवाएं गरम हो गयी थीं
और सारे प्रदेश को रेगिस्तान
बना रही थीं .
 
क्या पास के समंदर के पानी से
हम नहीं बना सकते
ऐसे गंध ,रूप की हवाएं
जो उदासीन कर सकें
उन हवाओं की तासीर को
जो कर रहीं थी
हमारे हरे भरे प्रदेश को वीरान .
 
 
 
तानाशाह के बाद 
_____________
अब बंदूकें नहीं करेंगीं बेवज़ह गगनभेदी शोर 
उस से निकली  गोलियां 
नहीं भेदेंगी किसी निहत्थे निरीह  के सीने को .
 
अब हम मिल सकेंगे उस पार्क में निर्भीक होकर  
जहाँ शाम ढले खट-खटाती थीं बूटें,
और बूटें  करतीं थीं
एक ऐसी डरावनी आवाज़ पैदा
जिनसे टूट जाते थे हमारे सपने .
 
हमारी  विस्फारित आकाँक्षाओं को
समेटे हुए था जो एक अनजाना साया
उनके प्रस्फुटन का आ गया है समय ,
हमारी आँखों में अन्खुआये सपनों में .
 
संगीनों की नोक  तले बचपन के
जवान होने का समय अब नहीं रहा ,
फूलों की वादियों में
पैदा होगा एक नया अहसास ,
कींचड से सनी मिटटी में
सन  रहे होंगे मजबूत होते पाँव.
 
 उदीप्त ख्वाहिशें जो गुलमोहर के पीछे
झाड़ियों में कैद थीं
झाड़ियों में फंसी हुयी चिड़िया सी निकल
आ गयी है बेख़ौफ़ नीले आसमान में ,
और भर रही हैं  उन्मुक्त उड़ान  .
 
एक पीढी जो पैदा हुयी ,जवान हुयी
और हो गयी बूढ़ी ,
जिनके शब्दकोश में न थे 
कई शब्द -
आशाएं , जिज्ञासाएं , अभिलाषाएं 
हिम्मत ,आवाज़ और सपने 
उन्होंने नौनिहालों  को 
सिखाना शुरू कर दिया है 
इनका ककहरा . 
 
दिमाग पर लगे पहरे हट गए हैं
और लोगों ने फिर से शुरू कर दिया है
सोचना उस अँधेरी सुरंग से बाहर निकल कर ,
जहाँ बिठाये थे तानाशाह ने पहरे
और जहाँ जीवन के अंतिम पलों में
तानाशाह पाया गया था .
 
 
 
 
 
यहीं से
________
 
चलो यहीं से क्यों न करें शुरुआत ,
छोटी छोटी खुशियाँ
एक दूसरे की आँखों में भरने  की.
 
आज छू लें  
उस बच्चे की गाल ,
और प्यार से थप-थपा दें उसे  ,
जो एक हाथ अपनी पैंट खींचता
और दूसरे हाथ बस्ता संभाले
नाक सिकोड़ते
जा रहा हो स्कूल .
 
आज  चुपके से रख दें
उस आदमी  के कटोरे में दो चपातियां
जो दिन भर रहा हो भूखा ,
और उसकी आँखों में
उमड़ते बादलों का नज़ारा लें ,
 
 
आज  पार्क में बेंच पर अकेले बैठे
उस बूढ़े की चुप्पी तुडाकर
दो शब्द कहें अपनापन के ,
और झांके उसकी आँखों में
दूर परदेस में रह रहे
उसके बेटे की अक्स .
 
स्लेट के लिये अपनी माँ से जिद करती
उस लडकी के हाथों में
कागज का एक जिस्ता  
और दो कठपेंसिलें थमा कर ,
और अचानक जिद को हारते देखें
क्यों न आज हम .
 
क्यों न आज रिक्शे से उतर कर
अपनी उतरी हुयी कमीज और पतलून
दो  भाड़े के साथ उस रिक्शेवाले को ,
जिसकी पीठ की चमड़ी तुम देखते रहे
रास्ते भर फटी कमीज के पीछे .
 
क्यों न एक फार्मूला ढूँढें
छोटी छोटी खुशियाँ
एक दूसरे के आँखों में भरने की ,
चलो आज ही करते हैं शुरुआत ,
यहीं से .
 
 
 
काश
_____
 
मैंने भी तुम्हारी तरह नहीं उठाया
एक रुपये का सिक्का ,
जब मैं गुजर रहा था
उस सिक्के के ऊपर .
 
सिक्के से लौटकर जो चांदी की चमक
आयी थी मेरी आँखों को ,
उस से मेरी भी आंखें चुन्धियायीं थीं .
 
पर मैं नहीं झुका था सड़क पर तुम्हारी तरह
कि कैसा लगेगा लोगों को
एक रुपये के सिक्के के लिये
सड़क पर झुकता हुआ आदमी .
 
पर मैंने  तुम्हारे आचरण से उलट
नहीं दिए थे एक रुपये का सिक्का कभी
उस आदमी को जो रोज बस स्टॉप पर
मांगता था एक रुपये का सिक्का .
कभी सर ,कभी हाथ हिला
मैं उसे देता था
आगे बढ़ जाने का निर्मम संकेत .
 
वह आदमी उस रास्ते पर
क्यों नहीं जाता जहाँ
जहाँ गिरा मिले उसे
एक रुपये का सिक्का ,
जिसे उठाने में
उसे कोई झिझक न हो.
काश वह जाता उधर .
नब्ज
_______________
लोग भाग  रहे थे और मैं  
जिन्दगी के तराजू पर
वक़्त के   नब्जों के बटखरे चढ़ा कर
नाप तौल  कर रहा था .
लोग दिशा उन्मुख होकर तलाश रहे थे अपनी मंजिल
और मैं कर रहा था दिन के खत्म होने का इंतज़ार ,
ध्रुव -तारे की तलाश में .
उत्कट इच्छाएं, स्वर्णिम अभिलाषाएं
अनुपम ईप्सा  और सुनहले सपने ,
पूरा होने का कर रहे थे वे  इंतज़ार .
मैं अपने नसों में 
लहू की तीव्रता महसूस  करता 
झेल रहा था बदहवाशी का दंश , 
भीड़ में खुद को सबसे पीछे पा कर . 
गाँठ
______
हमारी चुप्पी के पीछे एक गाँठ थी
जिसे हमने बना लिया था तब
जब हम खूब बोला बतियाया करते थे ,
हंस हंस कर .
 
लेकिन जब  हम हंस रहे थे खिल -खिलाकर
तब पता नहीं था बन जाएगी ऐसी गाँठ ,
जो कभी खुले नहीं धागों की तरह
और उनकी  वर्तुलाकार मरोंडे हुए संघनित
और चस्पां हुए अरूप जज्बातों की तरह .
 
संग संग रहते हुए भी हम कब निसंग हुए
कब हमारे बीच पत्थर की तरह  आयी  
कठोर ,निष्ठुर ,धुंधली सी बर्फानी सामानांतर रेखा ,
इसे हम जान पाए बहुत बाद चल कर
उन्हीं रेखाओं  पर तलुए जला कर .
 
तुम्हारे नरम  और उष्म होठों से
चुरायी गयी मुलामियत  और उनकी गरमाहट ,
जो बर्फ के भापों की तरह उडती रही फिजा में ,
और उन्हें पकड़ने की जुगत में
मेरे हाथ जमते रहे सर्द से
और जर्द हुईं  हथेलियों की रेखाएं .
 
ऐसा क्यों होता है हब हम घनिष्ठता का 
बुन रहे होते हैं ताना बाना ,
ठीक उसी वक़्त हम चुन रहे होते हैं 
दो विपरीत दिशाओं में जाने के रास्ते , 
जब गांठें खुलती भी हैं 
तो बिखर जाती हैं उन्हीं रास्तों पर . 
बदलाव
________
 
 
एटीएम न था मेरे  शहर में
मोबाइल न था मेरे शहर में
इंटरनेट न था मेरे शहर में .
 बहुमंजिली इमारतें न थीं मेरे  शहर में  .
 
एटीएम भी आया मेरे शहर में
मोबाइल भी आया मेरे शहर में
इंटरनेट भी आया मेरे शहर में
बहुमंजिली इमारतें भी बनीं मेरे शहर में .
 
एटीएम से फर्जीवाड़े हुए मेरे भी  शहर में
लड़कियों के अश्लील एमएमएस बने
और इंटरनेट पर डले  मेरे भी शहर में 
किशोरवय प्रेमी युगलों ने बहुमंजिली इमारतों से 
कूद कर जान दी मेरे भी शहर में . 
 
 
 
 सफ़र का सच
_______
मैं दिल्ली के हवाई अड्डे से ऊड़ कर 
रांची के हवाई अड्डे पंहुचा .
हवाई अड्डे में टैक्सी ली 
फिर बस अड्डे पंहुचा .
बस में बैठ कर 
फिर अपने शहर पंहुचा .
 
अपने शहर के बस अड्डे से 
रिक्शा से अपने घर .
 
यह घटना इस लिये नहीं रहा बता
कि हवाई जहाज पर चढ़ 
मैंने अभिजात्य श्रेणी की सीढियां चढीं थीं , 
इस लिये कर रहा हूँ बयां 
कि हवाई जहाज पर चढ़ 
मैंने छुड़ाया था अपना गदह जनम ,
की थी कोई अतृप्त इच्छा पूरी .
 
और सबसे जरूरी बात यह थी 
कि यह सफ़र हवाई जहाज से शुरू होकर 
रिक्शे पर हुयी थी ख़तम ,
वह रिक्शा जो मेरी रोज का सवारी था 
वही आया काम आखिर में भी .
 
हवाई  जहाज के टिकट लेते  वक़्त 
कोई मोल तोल
हील हुज्जत का तो सवाल ही नहीं था ,
लेकिन  जब रिक्शेवाले ने बीस की जगह 
तीस रुपये मांगे थे रात के नाम पर ,
थोड़ी सी तनी थीं मेरी भौंएं .
 
हवाई जहाज पर चढ़
अश्व नहीं गज शक्ति का आभास हुआ था ,
रिक्शा घोड़े की चाल चला था और
घोड़े की चाल के पीछे थी आदम शक्ति
जो सबसे सस्ते में बिकी थी .
 
चक्रव्यूह
__________
मैंने खुद ही रचा  है
अपने लिए एक चक्रव्यूह,
बुना है
अपना लिये ही एक  मकडजाल.
 
मैंने कई हदें पार करने की कोशिश की थी
कई पहाड़ ,जंगल ,नदियाँ , रेगिस्तान
कई बंदिशें ,कई सरहदें
जो बाँधी थी खुद के लिए
उन्हें ही तोड़ कर निकल जाना चाहा था
एक अनजान देश , एक अनजाने मुकाम  की ओर.
 
उन चहारदीवारियों को  फांदने की कोशिश में
छिलीं  थीं  मेरी कुहनियाँ और घुटने
और रिसा था खून पसीने के साथ साथ .
 
क्या तुम बता सकते हो
जब तुम बुनते हो खुद के लिए बंदिशें
तय करते हो खुद की सरहदें
रचते हो खुद की एक लक्ष्मण रेखा ,
तो क्या सचमुच उस सीमा रेखा से
बाहर निकलने के लिए
तुम कभी नहीं छटपटाते  .
 
 
 
राजा 
______
पहली बार और अक्सर मैंने सुना है , 
 माँ से  एक कहानी -
जिसमें होता था एक  राजा
और होती थी उसकी एक महारानी 
जो गहनों से रहती थी लदर फदर .
 
अक्सर राजा का एक महल होता  था 
जिसमें  वह रहता था अपनी
सैकड़ों पटरानियों  के साथ
और अक्सर होता था उसका   सिंहासन सोने का
जिस पर वह  बड़े अदब के साथ  बैठता था . 
 
राजा  का  महल होता था एक अभेद्य दुर्ग
 जिसमें  वह  सैकड़ों रानियों के साथ 
फरमा रहा होता था ऐशो आराम .
 
राजा के थे कई नौकर चाकर  
भाट चारण ,
कवि ,गीतकार ,
गवैये ,संगीतकार .
 
राजा की होती थी  एक विशाल सेना 
और उसका साम्राज्य फैला होता था  
नदियों से आगे ,पहाड़ से आगे
नहीं, नहीं आसमान से भी आगे .
 
राजा के  महल में जड़े होते थे
हीरे मोती
कीमती पत्थर और जवाहरात .
 शीशों  के बड़े बड़े आईने
जिसमे रानियाँ  देखा करतीं  थीं  अपने  अक्स.
 
अक्सर उन कहानियों में
आया करती थी एक खुबसूरत राजकुमारी
राजकुमारी जो हंसती तो फूल झड़ते
रोती तो मोती . 
और अक्सर राजा रखता था 
एक कठिन शर्त ,
जिसे पूरा करता होता  था 
कोई निर्धन , प्रतिभावान  बालक
और वह बन जाता था राजा .
 
पता नहीं क्यों माँ हर बार
ऐसी ही कहानी क्यों  सुनाती थी
जिसमें हर बार
एक गरीब  लड़का ही
बनता था राजा .
 
शायद उसे लगता हो बार बार दुहराने से
झूठ भी हो जाता है सच
और शायद मैं भी बन जाऊं  कभी राजा .
 
राजा -
जिसके पास मर्सीडीज के काफिले हों
जिसके सैकड़ों मंत्री  हों
जिसकी राजधानी अभेद्य दुर्ग हो
और जिसके भीतर उसका महल हो .
 
पर पता नहीं क्यों
राजा अब नहीं रखता कोई शर्त
जिसमें बन सके  कोई गरीब और काबिल लड़का राजा
राजा ने अपनी सीट अब
रजवाड़ों के लिए ही रिजर्व रख दी है .
समय
______
समय जो बीतता है 
चलता ही जाता है अपनी रफ़्तार 
 
समय बीतता है गाँव में 
पीपल की छाँव में 
बुधिया कुम्हार के चाक पर 
होती है उसकी रफ़्तार .
 
समय बीतता है
छग्गू  मल्हार की नाव में 
बूंद बूंद रिसते 
नदी के पानी की तरह .
 
समय की रेत-घड़ी 
रीतती ही जाती है 
रौंदती ही जाती है 
सपनों की छाँव .
 
समय रुक जाता है
दुखिया के छप्पर पर
सूराखों से आती 
सूरज की रोशनी में
खोज रहा वह अपनी ठाँव .
 
 
 
आवाज़
_______
 
तरह तरह की आवाज़ों के बीच
मैं फर्क नहीं कर पाता.
यह मेरी श्रवण -इंद्रियों  का दोष है
या मेरी समझ शक्ति का
यह मेरे लिए एक अबूझ पहेली ही
बना रहा .
 
बादल  फटने की आवाज़ और
भीखू रिक्शावाले के ह्रदय फटने की आवाज़
(जब उसका घर शहर के अतिक्रमण हटाओ अभियान
में हटाया गया )
दोनों आवाजें मुझे साफ़ साफ़ सुनायी  पडीं थीं 
भीखू के ह्रदय फटने की आवाज़
मुझे बादल  फटने की आवाज़ से भी तेज
और लगी थी धारदार .
 
रात के सन्नाटे में भी
होता है एक शोर
उस चुप्पी की भी
होती है एक भाषा  
 सुन सकता हूँ जिसे मैं
साफ़ साफ़ .
 
मुझे सुनायी पड़ती है
एक भूखे की करुण पुकार ,
बुखार में तपते हुए
किसी बीमार का आर्त्त स्वर .
पेट के लिए देह का सौदा करती
लड़कियों की मौन दारुण टेर.
जिंदगी को जुए की तरह
हारे आदमी की कातर कराह .
 
जिंदगी की भाषा
और उसके आवाज़ को
समझने  की तरकीब ,
काश सिखा दे यह जिन्दगी ही ,
इसी  उम्मीद में
सुनने की कोशिश  करता हूँ
इन आवाज़ों को मैं .
 अभिव्यक्ति
____________
 
शब्दों की क्षमताएं अपार हैं .
मेरे  लिए यह एक दुरूह व्यापार है .
अभिव्यक्ति का संकट क्या उनके लिए है
जो नहीं कर पाते अपनी बात दो टूक .
या जो मिटटी ,जमीन ,पानी ,धूप और हवाओं से
नहीं उगा पाते कोई सार्थक फसल .
 
विचारों की उपज और भूख का नाता
मुझे समझ नहीं आता
पेट की आग से उपजी सोच
और मक्खन से भरे हुए पेट
के बीच क्या सिर्फ इतनी समानता है 
क़ि काली रोशनाई  से दोनों का बयान होता है
एक आदमी जमीन पकड़ के रोता है
और दूसरा आकाश क़ि ऊँचाइयों को छूता है
 
 
 
बहस
_______
मैं जुलूस में चलता रहा औरों के संग
मैं भी शहर के सबसे बड़े चौराहे पर गया
मैंने भी लगाई एक रंगी टोपियाँ ,
फहराया तिरंगा
और नारों की आवाज़ को दी अपनी आवाज़ .
 
बहस मुहासिबे में मैं रहा उलझा
संविधान के पन्नों पर
जन तंत्र के चार पहियों पर .
कि चलता रहे सब ठीक ठाक
कि कुछ भी गड़बड़ी हो अगर
पहियों में
तो उन्हें सुचारू रूप में चलने की
जुगाड़ की जा सके .
कि पहियों में आती खचर -पचर की आवाज़ को
दुरुस्त किया  जाय
कि जंग लगे लोहे के पिनों पर
की जाय तेल मालिस 
और स्वतंत्रता के एक्सप्रेस वे पर
दौड़ती रहे जन तंत्र की गाड़ी .
 
यह बहस चौराहे  के सामूहिक आयोजन से
जब कुछ लोग ले जाते हैं
रेस्तौरांत के वातानुकूलित कमरों में
बीयर की चुस्की के साथ
मुर्गे की भूनी  टांग टूंगते हुए
तो बहस और भी अर्थवान लगती है ,
संकल्प शक्ति और बढ़ जाती है -
बहस को आगे बढ़ाने की
और किसी तार्किक परिणति तक ले जाने की ,
इसी स्थल पर -
किसी अगले इतवार .
अनदेखा  अनजाना सच 
_______________ 
 
सच अक्सर मेरे पास से गुजर जाता है
और अक्सर उसे पहचानने में
मैं गलतियाँ कर जाता हूँ .
कई बार वह चीजों की शक्ल में
गुजरता है
पर उसकी गंध नथुनों को नहीं आती 
उसकी काया नज़रों में नहीं समाती .
 
बचपन से देखने और सूंघने की कला 
जो सीखाई गयी पाठशालाओं में 
शिक्षकों के द्वारा 
उसमें पारंगत न हो पाना 
उनकी गलती नहीं ,
 
गलती समझने के उस तरीके में था 
जिसे मैं नहीं पकड़ पाया सही सही .
खुर्दबीन की तरह चीजों को देख पाने की तरकीब 
और अणुओं परमाणुओं की व्याख्या ,
इनसे वंचित हो जाने से ही 
होती रही सारी गलतफहमियाँ .
 
और होती रहीं गलतियाँ 
और समझता रहा मैं उन्हें ठीक वैसे ही 
जैसे दीखती रहीं वे .
ठीक वैसे ही जैसे सूरज सूरज जैसा 
चाँद चाँद जैसा
धरती,पेड़ ,आकाश ,सागर 
पहाड़ , झरने ,नदियों जैसा .
 
और मैं यह समझ नहीं पाया
कि सफ़ेद पोशाक पहने और उजली भाषा बोलते
आदमी की
पोशाक कितनी सफ़ेद है
और भाषा कितनी उजली है .
 
कि उनकी हमदर्दियों में  कितना है दर्द
कि उनकी मेहरबानियों में है कितनी मेहरबानी . 
और मैं खोजता रहा कथनियों में कथ्य
कथनी में कर्म .
 
हताश निराश मैं ,
मुझे आज भी तलाश है
एक ऐसे गुरु की
जो मुझे सिखा दे
मेरे अनदेखे अनजाने सच को
देखने जानने  की कला .
 
 
 
सुबह भी एक धुंध थी
_______________
सुबह भी एक धुंध थी
रात्त से छायी हुयी धुंध I
लोगों ने सोचा था जब सुबह उठेंगे वो
रोज की तरह
हट चुकी होगी धुंध
और वो हर रोज की तरह
अपने दिन की शुरुआत करेंगे
सडकों या पार्कों में टहलने से
और पसरी होगी एक उजली धूप I
 
 
रोज की तरह दिन की शुरुआत
सन्नाटे को चीरते हुए होगी
सडकों पर दौड़ने लगेंगी गाड़ियां
लोगबाग चीटियों की तरह
कतारों में रेंगने लगेंगे
और सड़क रोज की तरह
रौंदी जाने लगेगी I
 
 
लेकिन यह सुबह
बिलकुल अलग थी
न हाकरों ने बांटी अखबार
न दूधवाले डब्बे लेकर दौड़े
न फेरीवालों ने लगाई हांकें
न मस्जिदों में अजान पढ़े गए
न मंदिरों में बजी घंटियाँ I
 
लोग दुबके रहे घरों में
और करते रहे इंतज़ार
धुंध के छंटने  का I

Tuesday, 8 November 2011

जिंदगी की  भाषा और लय
________________
जिंदगी ने अपनी भाषा खो दी है कहीं 
अपनी बेबाकबयानी के शब्द कहीं खो दिए हैं 
चीजों के लिए सही अक्षर और
अक्षरों को जोड़ जोड़ 
दिए जानेवाले सही शब्द 
सही मात्राओं के साथ नहीं मिल रहे .
 
धरती को धरती 
सूरज को सूरज 
और चाँद को चाँद 
किन हरफों को जोड़ जोड़ कर कहें 
सही हरफ सही जुमले 
नहीं मिल रहे .  
 
सुबह सूरज के साथ उगता हुआ आदमी 
और सूरज के साथ शाम को डूबता हुआ आदमी 
अपनी चिंता ,परेशानी और फ़िक्र को 
इस कदर जीता है 
कि जुमले के कपड़ों को हरफों से सीता है
और  हरफों को सही जुमले 
और जुमलों को सही हरफ नहीं मिलते .
 
मंद बयार के संग बह रही खुशबू के संग 
सरसों के तेल की छौंक ने 
आदमी के नथुनों की नसों को 
और   चौड़ा कर दिया है , 
और वह बस ,ट्रेन और ट्राम के साथ
लगातार दौड़ रहा है
घुड़ -शक्ति को आदम -शक्ति से परास्त
करने की  अदम्य इच्छा  के साथ.
 
शाम होते ही अपने घर में 
दुबका हुआ आदमी 
अपने सपनों के संग  सोता है ,
 अगली होनेवाली सुबह के साथ 
ताल - मेल बिठाने वाले 
शब्दों की तलाश में -
सही अक्षर सही हरफ 
सही शब्दों ,सही जुमलों को जन्म देने वाली 
भाषा की लय में . 
 
३२ रुपये 
(सन्दर्भ : योजना आयोग की रिपोर्ट -
३२ रुपये प्रतिदिन शहर में और
२६ रुपये प्रतिदिन गाँव में
कमानेवाला  गरीब नहीं )
________
रिक्शेवाले को जब ३० रुपये भाडा दिया मैंने 
तो यह बताना भी नहीं भूला
कि अब तुम अमीर होने से
२ रुपये ही दूर हो .
अगली कोई भी सवारी मिलेगी
और तुम हो जाओगे अमीर .
अमीर आज ही .
 
अपने पिचके गाल
और बुझी हुयी आँखों से
किसी अनबुझी पहेली को सुलझाने के
अंदाज में उसने मुझे देखा .
कहा कुछ नहीं .
 
जब मोची से मैंने
बनवाए अपने जूते और चप्पल
और उस पर पालिस करने को भी कहा
कि वह हो जाये अमीर आज
सिर्फ मुझसे ही .
कि उसे अमीर बनाने का श्रेय
कोई छीन न ले मुझसे .
मैंने उसे पालिस करने को कहा
ताकि मैं उसे अकेले ही दे सकूँ
३२ रुपये से ऊपर
और वह न रह जाये गरीब .
 
चलते चलते मैंने उसे उसके
अमीर होने की भी खबर दी
तो भी वह बुझा -बुझा ही रहा
जैसे मैंने किया हो
भद्दा सा मजाक .
 
जब मैंने टायर का पंक्चर बनानेवाले से
४० रुपये देते हुए  देते हुए
कही यही बात
कि तुम एक ही ग्राहक से
आज हो गए अमीर
तो उसने पूछा मुझसे
और जाना योजना आयोग की रिपोर्ट
और यह भी कि यह संस्था सरकारी है.
 
टायर बनानेवाले ने सरकारी कर्मचारी मुझे जान
मुझसे कहा -
बाबूजी , हम गरीबों के वोट का
उड़ाया न करो मजाक .
काम
_____
घर से काम पर
काम से घर पर .
जिंदगी की यह  भाग दौड़
जिंदगी की यह घुड़ दौड़ .
जिंदगी  और चिल्ल -पों का 
ताल मेल 
काम और भागम - भाग का 
घाल मेल 
कुछ ऐसा है 
कि जिंदगी खुद के इन्साफ का हिसाब 
मांग रही है 
और काम के पूरे होने की तलाश जारी है . 
कच्ची दीवार
 ---------------
कच्ची मिटटी की एक दीवार बनाई है मैंने
ना रंग रोगन ना पच्चीकारी .
निहायत ही बदसूरत
उसकी खूबसूरती बस इतनी
कि उसे कहा जा सकता है
एक साबूत दीवार .
 
शब्दों के मणि -माणिक्य का उठता नहीं कोई सवाल
ना बिम्ब के जाल
और ना ही दिलफेंक नारों का कोई धमाल .
कोई रहगुज़र ताके नहीं
झांके नहीं .
अपनी तमाम उम्र की बची हुयी
बुद्धि -कौशल से
बनायी है मैंने
ऐसी कच्ची दीवार .

Saturday, 5 November 2011

आशियाना
---------------------------------------------------------
नहीं कहूँगा घर में दीवारें ना भी हों तो चलेगा
और ना हो छत भी तो .
पर हो तो एक घर कैसा भी
जिसे कह सकें घर .
ना एकड़ ,ना बीघे की बात यहाँ
ना फुलवारी ना बगीचे की .
यह भी जरूरी नहीं कि
दीखे पूरा पूरा आकाश .
बस कुछ वर्ग फूट की ही तो बात है
जमीन ना भी हो चलेगा
आकाश में टंगे घरों की तरह ,
हो तो कोई भी ,कैसा भी
घर जिसे कहें तो आशियाना
यहीं से
________
चलो यहीं से क्यों न करें शुरुआत ,
छोटी छोटी खुशियाँ
एक दूसरे की आँखों में भरने  की.
आज छू लें  
उस बच्चे की गाल ,
और प्यार से थप-थपा दें उसे  ,
जो एक हाथ अपनी पैंट खींचता
और दूसरे हाथ बस्ता संभाले
नाक सिकोड़ते
जा रहा हो स्कूल .
आज  चुपके से रख दें
उस आदमी  के कटोरे में दो चपातियां
जो दिन भर रहा हो भूखा ,
और उसकी आँखों में
उमड़ते बादलों का नज़ारा लें ,
आज  पार्क में बेंच पर अकेले बैठे
उस बूढ़े की चुप्पी तुडाकर
दो शब्द कहें अपनापन के ,
और झांके उसकी आँखों में
दूर परदेस में रह रहे
उसके बेटे की अक्स .
स्लेट के लिये अपनी माँ से जिद करती
उस लडकी के हाथों में
कागज का एक जिस्ता  
और दो कठपेंसिलें थमा कर ,
और अचानक जिद को हारते देखें
क्यों न आज हम .
क्यों न आज रिक्शे से उतर कर
अपनी उतरी हुयी कमीज और पतलून
दो  भाड़े के साथ उस रिक्शेवाले को ,
जिसकी पीठ की चमड़ी तुम देखते रहे
रास्ते भर फटी कमीज के पीछे .
क्यों न एक फार्मूला ढूँढें
छोटी छोटी खुशियाँ
एक दूसरे के आँखों में भरने की ,
चलो आज ही करते हैं शुरुआत ,
यहीं से .

मोमबत्ती
______
बत्ती ने काठ से मोम तक का
सफ़र तय किया था
कई सदियों में
और वह बनी मोमबत्ती.
 
लुकाठी में जलती आग
पहली बार लगी थी प्यारी और खूबसूरत
जब उसे मिला था मोम का सहारा .
 
मोम ने मर्म को छुआ था कई बार
और हम जलाने लगे थे मोमबत्तियां ,
शुभ और मार्मिक स्थलों पर .
 
हमने रिझाये लक्ष्मी को
दीपावली  के अवसर पर ,
खुशियों  की मोमबत्ती जला कर
और मोमबत्तियां जला कर
प्रकट की संवेदना
सामूहिक स्थलों पर
अपने प्रिय जनों की याद में
जो मारे गए सामूहिक नरसंहारों में .
 
काठ में लगी आग
जब सामूहिक उत्साह और लक्ष्य
को इंगित थी
वहीं मर्म स्थल से पिघली चेतना
मोम के रूप में संघनित हुयी थी
जो पिघलती थी
जब जब हमारा मर्म होता था आहत.
 
मोम ने दिया था एक सन्देश
काठ के दिलों को मोम होने का
मोम ने पत्थर दिलों को
पिघलाने की की थी एक अदना सी कोशिश
मोम बना सदाशयता और सहृदयता का संबल
 
यह मोमबत्ती जलती रहे
सदियों तक युगों तक
यूँ ही  अपनी रौ में
ठीक ऐसे  ही
अपने पूरे  वजूद के साथ.